मंगलवार, 6 नवंबर 2012

कभी याद आता हूँ मै


चन्दा बिखेरता
अपना नूर
सूनी आँखों
तकते तुम
तब कभी याद आता हूँ मै 

पाने को आतुर
अपने तट को
दौड़ पड़े जब लहरे
तब कभी याद आता हूँ मै 

दूर क्षितिज
जब ढले सूरज
खोकर कुछ पल
तब कभी याद आता हूँ मै 

फासला है
तेरा मेरा
उस दूर क्षितिज सा
फिर भी कभी
याद आता हूँ मै 
पाषाण बना 
वीराने मे 
सदियों से 
किसके इंतजार में 

बस इक 
अहसास लिये 
उस छुअन का 
जिसने तराशा मुझे 

शायद आ जाए 
इक बार फिर 
तराशने मुझे 
उन्ही नाजुक 
उंगलियों से